वीरो की गाथा - गौरव गाथा 2

🕉️भगवा में तेज व निखार रहे इसलिए रक्त की नदियाँ बहाने वाले, वह निरंतर लहराये इसलिए साँसों को वार देने वाले महान योद्धा तानाजी मालसुरे जी के बलिदान दिवस पर उन्हें शत्-शत् नमन🚩

🔰"गढ आला पण सिंह गेला" -छत्रपति शिवाजी महाराज
♦️सिंहगढ़ का नाम आते ही छत्रपति शिवाजी महराज के वीर सेनानी तानाजी मालसुरे की याद आती है। तानाजी ने उस दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग को जीता, जो ‘वसंत पंचमी’ पर उनके बलिदान का अर्घ्य पाकर ‘सिंहगढ़’ कहलाया।
🚩छत्रपति शिवाजी महाराज को एक बार सन्धिस्वरूप 23 किले मुगलों को देने पड़े थे। इनमें से कोण्डाणा सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। एक बार माँ जीजाबाई ने छत्रपति शिवाजी महाराज को कहा कि प्रातःकाल सूर्य भगवान को अर्घ्य देते समय कोण्डाणा पर फहराता हरा झण्डा आँखों को बहुत चुभता है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने सिर झुकाकर कहा - मां, आपकी इच्छा मैं समझ गया। शीघ्र ही आपका आदेश पूरा होगा।
🚩कोण्डाणा को जीतना आसान न था; पर छत्रपति शिवाजी महाराज के शब्दकोष में असम्भव शब्द नहीं था। उनके पास एक से एक साहसी योद्धाओं की भरमार थी। वे इस बारे में सोच ही रहे थे कि उनमें से सिरमौर तानाजी मालसुरे दरबार में आये। छत्रपति शिवाजी महाराज ने उन्हें देखते ही कहा - तानाजी, आज सुबह ही मैं आपको याद कर रहा था। माता की इच्छा कोण्डाणा को फिर से अपने अधीन करने की है।
🚩तानाजी ने ‘जो आज्ञा’ कहकर सिर झुका लिया। यद्यपि तानाजी उस समय अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण छत्रपति शिवाजी महाराज को देने के लिए आये थे; पर उन्होंने मन में कहा - पहले कोण्डाणा विजय, फिर रायबा का विवाह; पहले देश, फिर घर। वे योजना बनाने में जुट गये। 4 फरवरी, 1670 की रात्रि इसके लिए निश्चित की गयी। कोण्डाणा पर मुगलों की ओर से हिन्दू सेनानी उदयभान 1,500 सैनिकों के साथ तैनात था। तानाजी ने अपने भाई सूर्याजी और 500 वीर सैनिकों को साथ लिया। दुर्ग के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा रहता था। पनमन बहुत घना जंगल और ऊँची पहाड़ी थी। पहाड़ी से गिरने का अर्थ था निश्चित मृत्यु। अतः इस ओर सुरक्षा बहुत कम रहती थी। तानाजी ने इसी मार्ग को चुना।

🚩रात में वे सैनिकों के साथ पहाड़ी के नीचे पहुँच गये। उन्होंने ‘यशवन्त’ नामक गोह को ऊपर फेंका। उसकी सहायता से कुछ सैनिक बुर्ज पर चढ़ गये। उन्होंने अपनी कमर में बँधे रस्से नीचे लटका दिये। इस प्रकार 300 सैनिक ऊपर आ गये। शेष 200 ने मुख्य द्वार पर मोर्चा लगा लिया।
ऊपर पहुँचते ही असावधान अवस्था में खड़े सुरक्षा सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया। इस पर शोर मच गया। उदयभान और उसके साथी भी तलवारें लेकर भिड़ गये। इसी बीच सूर्याजी ने मुख्य द्वार को अन्दर से खोल दिया। इससे शेष सैनिक भी अन्दर आ गये और पूरी ताकत से युद्ध होने लगा।
यद्यपि तानाजी लड़ते-लड़ते बहुत घायल हो गये थे; पर उनकी इच्छा मुगलों के चाकर उदयभान को अपने हाथों से दण्ड देने की थी। जैसे ही वह दिखायी दिया, तानाजी उस पर कूद पड़े। दोनों में भयानक संग्राम होने लगा। उदयभान भी कम वीर नहीं था। उसकी तलवार के वार से तानाजी की ढाल कट गयी। इस पर तानाजी हाथ पर कपड़ा लपेट कर लड़ने लगे; पर अन्ततः तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए। यह देख मामा शेलार ने अपनी तलवार के भीषण वार से उदयभानु को यमलोक पहुँचा दिया। ताना जी और उदयभान, दोनों एक साथ धरती माता की गोद में सो गये।
🚩जब छत्रपति शिवाजी महाराज को यह समाचार मिला, तो उन्होंने भरे गले से कहा - गढ़ तो आया; पर मेरा सिंह चला गया। तब से इस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया। किले के द्वार पर तानाजी की भव्य मूर्ति तथा समाधि निजी कार्य से देशकार्य को अधिक महत्त्व देने वाले उस वीर की सदा याद दिलाती है।

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